
समय – प्रात: छह बजे
स्थान – बंगाल की खाड़ी
स्थिति – समुद्र तल से पचास हजार फिट ऊपर
परि-स्थिति –
धीरे धीरे संशय से घिर, बढ़ अपयश से शीघ्र अछोर
नभ के उर में उमड़ मोह से, फैल लालसा से निशि भोर
सुमित्रानंदन पंत का यह अद्भुत बिम्ब मैंने इतने निकट से पहली बार देखा था। ठीक मेरे नीचे विशाल काले पहाड़ घिर, बढ़, घुमड़ व फैल रहे थे। यह भाग्य की राई नोन उतारने का वक्त था। यह तीन सौ बीसी (एयर बस 320) मशीन मुझे बादलों के मुहल्ले में ले आई थी। पावस के मौसम में बादल घर का विहार !… वाह क्या किस्मत है। धरती से आकाश को जोड़ती असंख्य रंगों की एक मोटी रेखा ने तो मानो मेरी सुध बुध ही हर ली थी कि अचानक तीन सौ बीसी मशीन को किसी मनचले बादल ने ठूंसा मार दिया। एक हिचकोला ! और मेरा मन इंद्रधनुषी रस्सी पकड़ कर बादल घर से सीधे धरती पर , प्रकृति के सबसे सजल और निर्मल उत्सव के ठीक बीचो बीच ।
धरती से आकाश तक सावन ने अपना सुआपंखी सम्मोहन डाल दिया है। झूलती-डोलती, उगती-हरियाती, गाती-गूंजती, टपकती-बरसती, डूबती-उतराती और पानी पानी हुई जाती प्रकृति अपने सलोने और अनियारे पाहुन की अगवानी में बिछी बिछी जा रही है। कोई बम भोले में डूबा है कोई पेंग और झूले में। कोई छलाछल से खिला है तो किसी का आटा दाल पानी में मिला है। कोई टपकते पानी से बेहाल है तो पानी में भीग कर निहाल है। निरा मूर्ख होगा वह जो सावन के इस संगीत से बाहर रहना चाहेगा। रंग, गीत, संगीत, गंध, शांति, मिलन, वियोग, संयोग, स्मृति, एकांत, समूह, पेड़, पनघट, मंदिर, झूला, चूड़ी, चुनरी, मंत्र, कजली एक साथ इतना सब कुछ है सावन में कि समेटे नहीं सिमटता। सावन में इतने रंग घुले हैं कि हर कैनवस छोटा पड़ जाता है और इतने भाव हैं कि हर स्वभाव को कोई कोई भाव मिल ही जाता है। मैं बगैर देर किये इस उत्सव की मेम्बरशिप ले लेता हूं। झंडा गीत वाले नवीन जी याद आ जाते हैं मेह की झड़ी लगी, नेह की घड़ी लगी।
प्रकृति जब बांटने पर आती है तो पावस बन जाती है। वर्षा प्रकृति का दानोत्सव है और सावन इस उत्सव का सुमेरु है। आषाढ़ पावस का आगमन है और भाद्रपद विदाई। तृप्ति तो श्रावण ही देता है। श्रावण में प्रकृति दोनों हाथ से सोना चांदी लुटाती है। कोई चोंच में भर रहा है कोई अंजुलि में तो कोई कूल किनारे तोड़कर (नदी) ज्यादा से जयादा समेट लेने को आतुर है। कोई चुपचाप बस पिये जा रहा है। इस उदारता का कोई लिवाल मिले या नहीं लेकिन बांटने वाले को क्या फर्क पड़ता है। यह कोई ऐ वेईं बादल नहीं हैं यह तो खालिस सावन के मेघ हैं भर के आए हैं तो खाली कर के जाएंगे। अब पुष्य पुनर्वसु को ही लो। आषाढ़ श्रावण की दहलीज पर बैठता है यह नक्षत्र जोड़ा। धान वाले किसान से पूछिये अगर पुष्य सूखा तो धान रुठा। पुष्य में ही धान रोपा जाता है। अगर पुष्य पुनर्वसु के मेघ खाली होने में जरा सा अलसा जाएं तो किसान की बखरी खाली रह जाएगी।
धाराओं पर धाराएँ झरतीं धरती पर, रज के कण-कण में तृण-तृण की पुलकावलि भर
सावन संवेदनाओं से पोर पोर भीगा है। संवेदनाओं की इतनी अनोखी व बहुरंगी बारात किसी दूसरे माह में नहीं निकलती है। सावन किसी को खाली नहीं रहने देता लेकिन भरने का उसका अपना निराला ढंग है। सावन तो किसी को अपने पास नहीं बुलाता उलटे वह दबे पांव चुपचाप भीतर उतर जाता है।
लेकिन जिसका जैसा मन उसका वैसा सावन। सावन अगर ससुराल में बीता तो बाबुल की सुधियों में आंखे गंगा जमुना और अगर सावन मायके में तो पिया की याद में चित अनमना।
सावन मास में अधिक सनेह, पिय बिनु भूल्यो देह और गेह। मैं न झूलिहौं।
सावन की संवेदना गहरे स्तर पर बड़ी वैयक्तिक है। जायसी ने इसे बहुत तबियत से जिया है। वही पात्र, वही उपमान लेकिन पद्मावती व नागमती के मन की ऋतु अलग-अलग है तो सावन के अर्थ भी अलग हैं। जिन प्रतीकों के साथ सावन पद्मावती के संयोग सुख को दोगुना करता है तो उन्हीं के साथ नागमती वियोग कई गुना हो जाता है।
पद्मावती के लिए
सीतल बूँद, ऊँच चौपारा । हरियर सब देखाइ संसारा
तो नागमती के लिए
बाट असूझ अथाह गँभीरी जिउ बाउर, भा फिरै भँभीरी।
नागमती के आंखों से
रकत कै आँसु परहिं भुइँ टूटी । रेंगि चली जस बीरबहूटी ॥
और पद्मावती के लिए
कोकिल बैन, पाँति बग छूटी । धनि निसरीं जनु बीरबहूटी
पद्मावती प्रियतम के साथ हिंडोला रच रही है
हरियर भूमि, कुसुंभी चोला । औ धनि पिउ सँग रचा हिंडोला
तो नागमती अपने वियोग को बिसूर रही है
सखिन्ह रचा पिउ संग हिंडोला । हरियारि भूमि, कुसुंभी चोला ।
हालांकि लोक जीवन में सावन की संवेदना पूरी प्रकृति को भी समेट लेती है तो तभी तो एक अनाम कवि किसी बेटी से यह सावन भी कहला देता है कि
बाबा निबिया के पेड़ जिनि काटेउ, निबिया चिरैया बसेर,
बिटियन जिन दुख देहु रे मोरे बाबा, बिटियै चिरैया की नाय।
सगरी चिरैया रे उडि़ जइहैं बाबा, रहि जइयैं निबिया अकेल।
सावन ने बड़ी नफासत के साथ रुई जैसी फुहारों से बात शुरु की थी लेकिन अचानक आकाश में नगाड़ा बज उठता है। टप टप टप !! … बूंदे बड़ी होने लगी हैं। पानी पर पानी की मनोरम चित्रकारी चल रही है। बूंदे वर्तुल पर वर्तुल बना रही हैं। एक वर्तुल दूसरे में गुम जाता है। बड़ी-बड़ी बूंदे मतलब बड़े बुलबुले। चाची कह रही हैं, बुलबुले देखो। आज झडी लगेगी। निगोड़ी हवा का भी कोई ठीक ठिकाना नहीं। पुरबा पछुआ सब एक सार। सावन में हवा चारो तरफ से चलती है। पानी का संगीतं मंद से मध्यम और मध्यम से द्रुत में बदल रहा है। धारासार वर्षा शुरु हो गई है। छप छप अब गुड़प गुड़प में बदल गईं हैं।
हरीतिमा का अनंत साम्राज्य चारों तरफ बिखरा है। सावन मानो हरे पेंट की बालटी लेकर निकला है हर तरफ हस्ताक्षर करता हुआ जा रहा है। हरा रंग प्रकृति का प्रतिनिधि रंग है। कालाहारी और सहारा के मरुप्रदेश में भी नन्ही सी नागफनी हरे रंग से ही अपनी जिजीविषा के हस्ताक्षर करती है। वर्षा हरीतिमा का सबसे मोहक छंद है। जहां पानी भी नहीं टिकता वहां भी सावन हरियाली टिका जाता है। दीवार के सबसे ऊंचे कोने पर हरी काई उगी है। सावन में खाली कोई नहीं रहता। हर तरफ फुल स्केल में काम चल रहा है। आकाश जल उलीच रहा है, वायु गंध बिखेर रही है और धरती हरीतिमा बांट रही है। या यूं कहें कि सब मिलकर जीवन बांट रहे हैं। तभी कीचड़ सड़न फोड़ कर कुकुरमुत्ते उग आए हैं और पत्थरों की दरारों से एक नन्हा पौधा कुनमुना रहा है। वर्षा की उंगली की पकड़ सब सजीव हो उठा है।
माखनलाल चतुर्वेदी की एक रचना सुधियों में कौंध जाती है…
कैसा छंद बना देती हैं बरसातें बौछारों वाली,
निगल-निगल जाती हैं बैरिन नभ की छवियाँ तारों वाली!
प्रकृति मां है और श्रावण उसकी ममता बटोरने का पर्व है। मैं ऋतुओं में रिश्ते तलाशने लगता हूं। संबंधों के स्वभाव ऋतुओं के रंगों में मिल जाते हैं। फागुन बसंत मित्र पक्ष की ऋतु है। हंसती, खिलखिलाती, चिढ़ाती, रंगती, चुहल करती प्रकृति फागुन में दोस्त में बन जाती है। शरद पितृ पक्ष की ऋतु है शांत, श्वेत, मौन, संतुलित। पूर्वज शरद में विहार करते हैं। और ग्रीष्म …. वह तो सौ फीसदी समाज पक्ष है। तपता-तपाता, आंखे तरेरता, बात-बात पर परीक्षा लेता समाज हमेशा जेठ वैशाख की तरह फुफकारता है। लेकिन पावस मातृ पक्ष की ऋतु है। मां, बहन, पत्नी जैसी सजल, करुण, अकारण और अहेतुक कृपालु, उमग कर बांटने वाली। अचरज नहीं कि नारी समुदाय श्रावण को रजकर मनाता है। इसलिए तो ग्रीष्म में तपी हुई धरती वर्षा की सजल गोद में बैठकर निहाल हो गई है।
सावन की सवारी धूम से निकल रही है। चातुर्मासी संत, भूतभावन के भक्त, योगी, संयोगी, वियोगी और गृहस्थ हर कोई इस सवारी में शामिल है। सावन के पास सबके लिए कुछ न कुछ जरुर है। सावन हर तरह के भाव को स्वीकार करता है जैसे जल सब कुछ समेट कर बहता है। मेरा मन नेह के इस मेह से बाहर आने को कतई राजी नहीं है। वह बस उझककर नारा लगाता है मन भावन सावन जिंदाबाद ! और फिर गुड़प । बूंदों के संगीत में पंत की पंक्तियां बज उठती हैं।
वर्षा के प्रिय स्वर उर में बुनते सम्मोहन
प्रणयातुर शत कीट विहग करते सुख-गायन
मेघों का कोमल तम श्यामल तरुओं से छन
मन में भू की अलस लालसा भरता गोपन
प्रणयातुर शत कीट विहग करते सुख-गायन
मेघों का कोमल तम श्यामल तरुओं से छन
मन में भू की अलस लालसा भरता गोपन
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