Sunday 31 July 2011

सुआ पंखी सम्मोहन




समय प्रात: छह बजे

स्‍थान बंगाल की खाड़ी

स्थिति समुद्र तल से पचास हजार फिट ऊपर

परि-स्थिति

धीरे धीरे संशय से घिर, बढ़ अपयश से शीघ्र अछोर

नभ के उर में उमड़ मोह से, फैल लालसा से निशि भोर

सुमित्रानंदन पंत का यह अद्भुत बिम्‍ब मैंने इतने निकट से पहली बार देखा था। ठीक मेरे नीचे विशाल काले पहाड़ घिर, बढ़, घुमड़ व फैल रहे थे।  यह भाग्‍य की राई नोन उतारने का वक्‍त था। यह तीन सौ बीसी (एयर बस 320) मशीन मुझे बादलों के मुहल्‍ले में ले आई थी। पावस के मौसम में बादल घर का विहार !वाह क्‍या किस्‍मत है। धरती से आकाश को जोड़ती  असंख्‍य रंगों की एक मोटी रेखा ने तो मानो मेरी सुध बुध ही हर ली थी कि अचानक तीन सौ बीसी मशीन को किसी मनचले बादल ने ठूंसा मार दिया। एक हिचकोला ! और मेरा मन इंद्रधनुषी  रस्‍सी पकड़ कर बादल घर से सीधे धरती पर , प्रकृति के सबसे सजल और निर्मल उत्‍सव के ठीक बीचो बीच ।
  धरती से आकाश तक सावन ने अपना सुआपंखी सम्‍मोहन डाल दिया है। झूलती-डोलती, उगती-‍हरियाती, गाती-गूंजती, टपकती-बरसती, डूबती-उतराती और पानी पानी हुई जाती प्रकृति अपने सलोने और अनियारे पाहुन की अगवानी में बिछी बिछी जा रही है। कोई बम भोले में डूबा है कोई पेंग और झूले में। कोई छलाछल से खिला है तो किसी का आटा दाल पानी में मिला है। कोई टपकते पानी से बेहाल है तो पानी में भीग कर निहाल है। निरा मूर्ख होगा वह जो सावन के इस संगीत से बाहर रहना चाहेगा।  रंग, गीत, संगीत, गंध, शांति, मिलन, वियोग, संयोग, स्‍मृति, एकांत, समूह, पेड़, पनघट, मंदिर, झूला, चूड़ी, चुनरी, मंत्र, कजली एक साथ इतना सब कुछ है सावन में कि समेटे नहीं सिमटता। सावन में इतने रंग घुले हैं कि हर कैनवस छोटा पड़ जाता है और इतने भाव हैं कि हर स्‍वभाव को कोई  कोई भाव मिल ही जाता है। मैं बगैर देर किये इस उत्‍सव की मेम्‍बरशिप ले लेता हूं। झंडा गीत वाले नवीन जी याद आ जाते हैं मेह की झड़ी लगी, नेह की घड़ी लगी।

प्रकृति जब बांटने पर आती है तो पावस बन जाती है। वर्षा प्रकृति का दानोत्‍सव है और सावन इस उत्‍सव का सुमेरु है। आषाढ़ पावस का आगमन है और भाद्रपद विदाई। तृप्ति तो श्रावण ही देता है। श्रावण में प्रकृति दोनों हाथ से सोना चांदी लुटाती है। कोई चोंच में भर रहा है कोई अंजुलि में तो कोई कूल किनारे तोड़कर (नदी) ज्‍यादा से जयादा समेट लेने को आतुर है। कोई चुपचाप बस पिये जा रहा है। इस उदारता का कोई लिवाल मिले या नहीं लेकिन बांटने वाले को क्‍या फर्क पड़ता है। यह कोई ऐ वेईं बादल नहीं हैं यह तो खालिस सावन के मेघ हैं भर के आए हैं तो खाली कर के जाएंगे। अब पुष्‍य पुनर्वसु को ही लो। आषाढ़ श्रावण की दहलीज पर बैठता है यह नक्षत्र जोड़ा। धान वाले किसान से पूछिये अगर पुष्‍य सूखा तो धान रुठा। पुष्‍य में ही धान रोपा जाता है। अगर पुष्‍य पुनर्वसु के मेघ खाली होने में जरा सा अलसा जाएं तो किसान की बखरी खाली रह जाएगी।

धाराओं पर धाराएँ झरतीं धरती पर, रज के कण-कण में तृण-तृण की पुलकावलि भर

सावन संवेदनाओं से पोर पोर भीगा है। संवेदनाओं की इतनी अनोखी व बहुरंगी बारात किसी दूसरे माह में नहीं निकलती है। सावन किसी को खाली नहीं रहने देता लेकिन भरने का उसका अपना निराला ढंग है। सावन तो किसी को अपने पास नहीं बुलाता उलटे वह दबे पांव चुपचाप भीतर उतर जाता है।

लेकिन जिसका जैसा मन उसका वैसा सावन। सावन अगर ससुराल में बीता तो बाबुल की सुधियों में आंखे गंगा जमुना और अगर सावन मायके में तो पिया की याद में चित अनमना।

सावन मास में अधिक सनेह, पिय बिनु भूल्‍यो देह और गेह। मैं न झूलिहौं।

सावन की संवेदना गहरे स्‍तर पर बड़ी वैयक्तिक है। जायसी ने इसे बहुत तबियत से जिया है। वही पात्र, वही उपमान लेकिन पद्मावती व नागमती के मन की ऋतु अलग-अलग है तो सावन के अर्थ भी अलग हैं। जिन प्रतीकों के साथ सावन पद्मावती के संयोग सुख को दोगुना करता है तो उन्‍हीं के साथ नागमती वियोग कई गुना हो जाता है।
पद्मावती के लिए
सीतल बूँद, ऊँच चौपारा । हरियर सब देखाइ संसारा
तो नागमती के लिए
बाट असूझ अथाह गँभीरी  जिउ बाउर, भा फिरै भँभीरी।
नागमती के आंखों से
रकत कै आँसु परहिं भुइँ टूटी । रेंगि चली जस बीरबहूटी
और पद्मावती के लिए
कोकिल बैन, पाँति बग छूटी । धनि निसरीं जनु बीरबहूटी
पद्मावती प्रियतम के साथ हिंडोला रच रही है
हरियर भूमि, कुसुंभी चोला । औ धनि पिउ सँग रचा हिंडोला
तो नागमती अपने वियोग को बिसूर रही है
सखिन्ह रचा पिउ संग हिंडोला । हरियारि भूमि, कुसुंभी चोला

हालांकि लोक जीवन में सावन की संवेदना पूरी प्रकृति को भी समेट लेती है तो तभी तो एक अनाम कवि किसी बेटी से यह सावन भी कहला देता है कि

बाबा निबिया के पेड़ जिनि काटेउ, निबिया चिरैया बसेर,
बिटियन जिन दुख देहु रे मोरे बाबा, बिटियै चिरैया की नाय।
सगरी चिरैया रे उडि़ जइहैं बाबा, रहि जइयैं निबिया अकेल।

सावन ने बड़ी नफासत के साथ रुई जैसी फुहारों से बात शुरु की थी लेकिन अचानक आकाश में नगाड़ा बज उठता है। टप टप टप !! बूंदे बड़ी होने लगी हैं। पानी पर पानी की मनोरम चित्रकारी चल रही है। बूंदे वर्तुल पर वर्तुल बना रही हैं। एक वर्तुल दूसरे में गुम जाता है। बड़ी-बड़ी बूंदे मतलब बड़े बुलबुले। चाची कह रही हैं, बुलबुले देखो। आज झडी लगेगी। निगोड़ी हवा का भी कोई ठीक ठिकाना नहीं। पुरबा पछुआ सब एक सार। सावन में हवा चारो तरफ से चलती है। पानी का संगीतं मंद से मध्‍यम और मध्‍यम से द्रुत में बदल रहा है। धारासार वर्षा शुरु हो गई है। छप छप अब गुड़प गुड़प में बदल गईं हैं।

हरीतिमा का अनंत साम्राज्‍य चारों तरफ बिखरा है। सावन मानो हरे पेंट की बालटी लेकर निकला है हर तरफ हस्‍ताक्षर करता हुआ जा रहा है। हरा रंग प्रकृति का प्रतिनिधि रंग है। कालाहारी और सहारा के मरुप्रदेश में भी नन्‍ही सी नागफनी हरे रंग से ही अपनी जिजीविषा के हस्‍ताक्षर करती है। वर्षा हरीतिमा का सबसे मोहक छंद है। जहां पानी भी नहीं टिकता वहां भी सावन हरियाली टिका जाता है। दीवार के सबसे ऊंचे कोने पर हरी काई उगी है। सावन में खाली कोई नहीं रहता। हर तरफ फुल स्‍केल में काम चल रहा है। आकाश जल उलीच रहा है, वायु गंध बिखेर रही है और धरती हरीतिमा बांट रही है। या यूं कहें कि सब मिलकर जीवन बांट रहे हैं। तभी कीचड़ सड़न फोड़ कर कुकुरमुत्‍ते उग आए हैं और पत्‍थरों की दरारों से एक नन्‍हा पौधा कुनमुना रहा है। वर्षा की उंगली की पकड़ सब सजीव हो उठा है।
माखनलाल चतुर्वेदी की एक रचना सुधियों में कौंध जाती है
कैसा छंद बना देती हैं बरसातें बौछारों वाली,
निगल-निगल जाती हैं बैरिन नभ की छवियाँ तारों वाली!

प्रकृति मां है और श्रावण उसकी ममता बटोरने का पर्व है। मैं ऋतुओं में रिश्‍ते तलाशने लगता हूं। संबंधों के स्‍वभाव ऋतुओं के रंगों में मिल जाते हैं। फागुन बसंत मित्र पक्ष की ऋतु है। हंसती, खिलखिलाती, चिढ़ाती, रंगती, चुहल करती प्रकृति फागुन में दोस्‍त में बन जाती है। शरद पितृ पक्ष की ऋतु है शांत, श्‍वेत, मौन, संतुलित। पूर्वज शरद में विहार करते हैं। और ग्रीष्‍म …. वह तो सौ फीसदी समाज पक्ष है। तपता-तपाता, आंखे तरेरता, बात-बात पर परीक्षा लेता समाज हमेशा जेठ वैशाख की तरह फुफकारता है। लेकिन पावस मातृ पक्ष की ऋतु है। मां, बहन, पत्‍नी जैसी सजल, करुण, अकारण और अहेतुक कृपालु, उमग कर बांटने वाली। अचरज नहीं कि नारी समुदाय श्रावण को रजकर मनाता है। इसलिए तो ग्रीष्‍म में तपी हुई धरती वर्षा की सजल गोद में बैठकर निहाल हो गई है।

सावन की सवारी धूम से निकल रही है। चातुर्मासी संत, भूतभावन के भक्‍त, योगी, संयोगी, वियोगी और गृहस्‍थ हर कोई इस सवारी में शामिल है। सावन के पास सबके लिए कुछ न कुछ जरुर है। सावन हर तरह के भाव को स्‍वीकार करता है जैसे जल सब कुछ समेट कर बहता है। मेरा मन नेह के इस मेह से बाहर आने को कतई राजी नहीं है। वह बस उझककर नारा लगाता है मन भावन सावन जिंदाबाद ! और फिर गुड़प । बूंदों के संगीत में पंत की पंक्तियां बज उठती हैं।

वर्षा के प्रिय स्वर उर में बुनते सम्मोहन
प्रणयातुर शत कीट विहग करते सुख-गायन
मेघों का कोमल तम श्यामल तरुओं से छन
मन में भू की अलस लालसा भरता गोपन
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Friday 8 July 2011

चिप चिप छप छप ...

गुड मॉर्निग !! ….जुही ने गमले से उझक कर कहा और कुछ बूंदे बिखेर दीं।
पाम ने बड़ी पत्तियां हिलाईं और पानी पानी होते हुए कहा, गुड मॉर्निग।
नन्‍हीं गौरैया ने पंख फड़फडाकर पानी झाड़ा और कहा गुड मॉर्निंग।
धुला पुंछा आकाश, ठंडी भीगी सड़क, छज्‍जे से टप टप….और हर तरफ से सुबह की शुभकामनायें।
आषाढ़ रात को अपना आशीर्वाद दे गया है पहली बौछार से नहाई धोई प्रकृति खिलंदड़ मुनिया की तरह चहक रही है।
पुरवा का एक ठंडा झोंका सरसराता हुआ निकला और ना‍सिका के द्वार पर सोंधी गंध के सिगनेचर छोड़ गया।
मेघोरदर-विनिर्मुक्‍ता: कल्‍हार सुख शीतला
शक्‍यमन्‍जलिभि: पातुं वाता केतकगन्धन:।
( मेघों के समूह से निकली, कमल कल्‍हार से शीतल हुई और केतकी की गंध से भरी इस वायु को अंजिल में भर लेना चाहिए।.. वाल्‍मीकि रामायण)
अब बाबा वाल्‍मीकि जैसी किस्‍मत तो है नहीं कि कमल (कल्‍हार या कुंज) व केतकी की सुवास से भरा वर्षा ऋतु का पवन गुड मार्निंग बोले।  उमस भरे चिप-चिपे मौसम में मन की ऋतु बदलने के लिए इतना कम है क्‍या कि शीतलता और सोंधी गंध मिल जाए। इस शीतल उपहार के लिए तो अंजुलि बांध लेना ही ठीक है।
…. मगर मन का मौसम इतनी जल्‍दी बदलता कहां है। चेहरे पर शीतल हवा का स्‍पर्श और पीठ पर चिप-चिप। आषाढ़ की पीठ पर जेठ सवार है। जैसे कि फागुन की पीठ पर माघ सवारी करता है। माघ की झुर झुर खत्‍म होते होते आधा फागुन बीत लेता है ठीक उसी तरह जेठ की जलन घटते घटते आषाढ़ खिसक जाता है। जेठ की तपस्‍या का तेज तो आधे आषाढ़ तक चलता है। जेठ व आषाढ़ की संधि पर भयानक गर्मी से व्‍याकुल बाबा कह उठते थे, तप तप ले …. तू तो मृगसिर्रा है। …. तेरी ही पूंछ पकड़ कर आषाढ आएगा।
बहुत बाद में पता चला कि जेठ का अंतिम नक्षत्र मृगशिरा है जो खूब तपता है। कहते हैं कि मृग जैसी आकृति वाले इस नक्षत्र का मुंह जेठ में और पूंछ आषाढ़ में है। तपन और शीतलता का यह मृग जेठ व आषाढ़ की सीमा पर कुलांचे भरता है। इसकी धमाचौकड़ी में आषाढ़ का मिजाज ही नहीं मिलता। कभी पछवा का गरम झकोर तो कभी पुरवा की मीठी थपकी। एक टुकड़ी बरसी तो छप छप और गई तो लंबी उमस भरी चिप-चिप…. जितना बरसा वह तवे पर छन्‍न  जैसा। आधा आषाढ़ तो बेचारा जेठ का गुस्‍सा कम करने में ही कुर्बान हो जाता है। आद्रा (नक्षत्र) न हो तो आषाढ़ की पहुनाई का मेघ राग कौन बजाये।  लेकिन मृगशिरा से मुठभेड़ के बिना आद्रा का आनंद  फीका है यह बात तो जायसी की नागमती को भी मालूम थी।
तपनि मृगसिरा जे सहैं, ते अद्रा पलुहंत ॥
मुझे जिस झोंके ने छुआ था वह सौ फीसदी आद्रा का ही रहा होगा। आद्रा ही दिल्‍ली को जेठ के हैंगओवर से मुक्‍त करती है।
आद्रा के मेघ को बुला रहे थे रात को, लेकिन नींद खुले तब न। वैसे सुबह कोई बहुत घाटे में नहीं गई। धुला पुंछा सवेरा मिला और साथ ही मिली अंजुरी भर सोंधी गंध। अर्थात धरती से जुड़ने का न्‍योता। भगतिन ठीक ही कहती थीं कि आषाढ़ चढ़ा तो सब कुछ जुड़ा। आकाश की शीतलता और धरती की सुरभि के स्‍पर्श के बाद आखिर मौसम से कौन न जुड़ जाएगा। आषाढ़ सबको जोड़ने और जुड़ाने (शीतल) के लिए ही आता है। आषाढ़ी बादल पुकारते फिर रहे हैं कि कि चैत, वैशाख और जेठ का बैरागीपन छोड़ो और एक दूसरे से जुड़ो और सबको जोड़ो।
खगोलिकी भी आषाढ़ को मिथुन राशि के खाते में डालती है। मिथुन अर्थात युगल। आषाढ़ बरसा तो आकाश धरती जुड़े। खेत किसान जुड़े। मेघ बिजली जुड़े। आम जामुन पके-टपके। सक्रियता का कोलाहल गूंज उठा है। प्रकृति कई तरह के जीवों से खिल रही है। घंटों में पूरी जीवन लीला कर लेने वाले जरायुजों (कीट-जिनकी आयु बहुत कम होती है) से लेकर दीर्घजीवी पशु व मनुष्‍य तक सब के लिए यह काम का वक्‍त है। 
पीछे पेड़ पर चिडि़यों का बिल्‍डर समुदाय ओवरटाइम में काम कर रहा है। चींटियों की पूरी पांत अपने प्रोजेक्‍ट को वक्‍त पर पूरा करने को बेताब है। जुही, मालती, बेला का परिवार तेजी से बढ़ रहा है। हर तरफ सृजन, उत्‍पादन और जीवन का चक्र चल पड़ा है। आषाढ़ ने गरज बरस कर सबको काम पर लगा दिया है।
मैं भी काम पर लग गया हूं। आषाढ़ को देखने के काम पर।
वर्ष की किसी भी ऋतु का आकाश, आषाढ़ के आकाश सा दर्शनीय नहीं होता। जेठ वैशाख में तो ऊपर देखना.. राम राम कहो और सावन या भाद्रपद में जब कुछ दिखे तब न। आकाश दर्शन के मामले में फागुन, बसंत और शरद भी कुछ नरम गरम ही हैं, आषाढ़ जैसा कोई नहीं।
आषाढ़ में आकाश की स्‍क्रीन पर पूरा एनिमेशन चलता है। बादलों में तरह तरह के आकार और चेहरे। सूर्य की रश्मियों से रंग व प्रकाश के अनिवर्चनीय स्‍पेशल इफेक्‍ट और अबूझ संगीत। रंग, चित्र, प्रकाश और ध्‍वनि का अतुलनीय संयोजन।
अहो…. आषाढ़ अद्भुत चित्रकार है। ऊषा अभी अभी आकाश को नीले रंग से बुहार कर गई है। मगर पूरब से कुछ मेघ शिशु आ धमके हैं। नीले आंगन में धमा चौकड़ी शुरु हो गई है।  पछुआ ने डपटा तो बेचारे मेघ एक कोने में दुबक गए। लेकिन तब तक उनका दूसरा दल आ पहुंचा गड़गड़ाता हुआ। इसे सूरज के हंकड़ने की भी परवाह नहीं। हठी बादलों ने सूर्य को गुदगुदाना शुरु कर दिया है। मेघों की कोर से सूर्य की लेजर बीम बिखर रही हैं। एक कोने में सूर्य मेघों को समझाने की कोशिश में है लेकिन आकाश सांवला होने लगा है। श्‍वेत बगुलों की एक पांत तेजी से उड़ती हुई निकल जाती है। पपीहे ने टेर लगा दी है। अचानक आषाढ़ के आकाश का एक कोना गरज उठता है। पूरब से एक पूरा मेघ दल दौड़ पड़ा है, बिजली की खड्ग लेकर। अब कोई फायदा नहीं। उंह, इन के मुंह कौन लगेसूर्य भी निकल देता है।
खडग-बीजु चमकै चहुँ ओरा । बुंद-बान बरसहिं घन घोरा ॥ ….
कुछ बौछारों के बाद मेघ पार्टी तितर-बितर और हंसता हुआ सूर्य फिर सामने, बादलों के छोटे टुकड़े इधर उधर टंगे हैं लेकिन अब सूर्य से दूर दूर हैं। यही लुकाछिपी आषाढ़ में आकाश को विचित्र चित्रशाला बनाती है।
निराला का बादल राग बज उठा है।
ऐ अनन्त के चंचल शिशु सुकुमार! कभी किरण-कर पकड़-पकड़कर
चढ़ते हो तुम मुक्त गगन पर, झलमल ज्योति अयुत-कर-किंकर,
सीस झुकाते तुम्हे तिमिरहरअहे कार्य से गत कारण पर
पावस के इस पहले पाहुन का भीगा भीगा आशीष पाकर पाकर मन हरा हो गया है। आषाढ़ ने जल, वायु, गंध हर तरह से अभिषेक कर दिया है। मैं पूरब की तरफ देखता हूं। सामने के ऊंचे भवन के पीछे एक बड़ा मेघ टंगा है। यह झोंका उस तरफ से ही आया था। उलझन में हूं आषाढ़ को कैसे थैंक्‍यू कैसे बोलूं। शब्‍द भी तो होने चाहिए।
अंतत: आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का सूत्र लेकर भारत के एक भव्‍य ग्रंथ मंदिर के सामने माथा टेक देता हूं। कालिदास के मेघदूत की बतकही दोहराकर ही आषाढ़ की कथा पूरी होगी।
तस्मिन्‍नद्रौ कतिचिदबलाविप्रयुक्‍त: स कामी,
नीत्‍वा मासान्‍कनकवलयभ्रंशरिक्‍त प्रकोष्‍ठ:।।
आषाढ़स्‍य प्रथमदिवसे मेघमालिश्‍लष्‍टसानुं,
वप्रक्रीड़ा परिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श।।
थैंक यू  आषाढ़ जी, थैंक यू आचार्य जी। ….
………..  .
आचार्य का सूत्रगीता और मेघदूत विश्‍वनाथ जी के मंदिर के घंटे के समान हैं। हर तीर्थयात्री एक बार इनको अवश्‍य बजा जाता है।(मेघदूत एक पुरानी कहानी की भूमिका से)
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Tuesday 28 June 2011

छाहौं चाहति छांह !

रुद्र के दर्शन किये.??... पानी में तर फेंटा बांधे कुएं की छाया में बैठे बूढ़े साधू ने सवाल दागा।
 क्‍या बाबा.!! .. हलक में कांटे उगे हैं और तुम्‍हें ठिठोली सूझ रही है। झुंझलाते हुए मैंने पानी के लोटे में मुंह अड़ा दिया। ...


बाबा कनखियों से मुस्‍कराये। ..... देख ले देख ले .... फिर न कहना नहीं बताया!!
क्‍या रुद्र ...कैसा दर्शन.. किसकी बात कर रहे हो ?? पानी ढकोल कर मैं कुछ संभल गया था।
बाबा चटक कर उठे और मुझे खींच कर खुली सड़क पर ले आए।
अपने सर के ऊपर देख ! ... रुद्र कैसे ठठा रहा है।
जेठ का सूरज साक्षात रुद्र है। ... कितना दुर्धर्ष है इसका अट्टहास।
सबकी सिटृटी पिट्टी गुम है। क्‍या आदमी क्‍या, परिंदा क्‍या, क्‍या जीव क्‍या कीट।
अपनी आदतें भूल, सब मैदान छोड़ भागे हैं।
सन्‍नाटी सड़क पर बाबा का ठहाका गूंज रहा था।
. मैं तो चला.... तू भी दर्शन कर और छाया में छिप जा, जेठ के सूरज से पंगा नहीं लेने का... समझा।
 बूढ़े साधु ठीक कहते हैं। ज्‍येष्‍ठ के सूरज जैसा ही होता होगा वैदिक रुद्र। ज्‍येष्‍ठ तो वैसे भी वृषभ (ज्‍योतिषीय राशि) पर सवार हो कर आता है। वृषभ अर्थात रुद्र का वाहन तो वैसा ही रौद्र रुप। .... सूर्य यूं तो दिव्‍य भी है, मनभावन भी। बिला नागा जाने कब से प्रकृति को चेतना की डाक बांट रहा है लेकिन ज्‍येष्‍ठ में इसका मिजाज कुछ बदल जाता है। पौ फटते ही सूर्य चढ़ आया है हंकड़ता हुआ। तमतमाये सूरज के साथ दिन सुबह से आग उगलने लगता है। पूरी प्रकृति को अगियारी में बिठाये नाच रहा है सूरज। प्रत्‍यक्ष देवता अपने हजारों हाथों से अग्निबाण्‍ बरसा रहा है। ज्‍येष्‍ठ सूर्य के पौरुष का लाइव टेलीकास्‍ट है। ज्‍येष्‍ठ की पूरी चित्रकारी सूर्य करता है। प्रकृति का सबसे तेजस्‍वी देवता जब कुछ तय करता है तो क्‍या मजाल कि कोई कुछ बोल सके। सूर्य का आदेश है कि सबको एक धूसर पीले रंग में डूबना होगा। बसंत का पीलापन नहीं आग का पीलापन। जिसको पकना हो आम की तरह अकेले पके यानी रस चाहिए तो धूप पिये। ज्‍येष्‍ठ की भोर से ही चारो तरफ निर्गुण बिखर जाता है। प्रकृति और इसके सभी सदस्‍य अपनी हनक, सनक और तुनक छोड़ कर दुबक जाते हैं। एक अनमनी शांति, अकेलापन। प्रकृति का सबसे बड़ा तपस्‍वी अपनी जटा खोले नाच रहा है। वाह ज्‍येष्‍ठ वाह .... मेरे आस पास भी एक तपोवन रच गया है।
जेठ जरै जग चलै लुवारा । उठहि बवंडर परहिं अँगारा ॥
चारिहु पवन झकोरे आगी । लंका दाहि पलंका लागी॥ 
जायसी की नागमती पछुआ को बिसूर रही है। दिन चढते ही आग की नदी में पछुआ की लहरे उठने लगी हैं। पछुआ ग्रीष्‍म की सहचरी है। शरद बीतने की सूचना देने वाली बसंती मादक पछुआ ज्‍येष्‍ठ में दाहक हो जाती है। हाहाकारी लू। भरी दोपहरी तरह तरह की आवाजें। ग्राम्‍य जीवन यूं ही ज्‍येष्‍ठ की दोपहरी को डरावने विश्‍वासों नहीं जोड़ लेता। ज्‍येष्‍ठ की हवा हॉरर फिल्‍म का सा संगीत रचती है। दूर दूर तक निर्जनता पसरी है चिड़ी का पूत भी नहीं दिखता। पछुआ धूल के बगूलों में घूम घूम कर सूरज को रिझा रही है। ज्‍येष्‍ठ इस पश्चिमा वायु का भी चरम है। अब तो यह बसंत में ही लौटेगी। कट चुके सुनसान खेतों में सूरज अपनी इस सहचरी के साथ क्रीड़ा करता है।
मगर इस क्री़ड़ा को देखने का बूता किसमे है। इस समय तो सबको बस छांह का एक टुकड़ा चाहिए। पत्‍तों की छांह, न मिले तो दीवाल की छांह, सर पर छोटी सी किताब रखकर ही कुछ बचत हो जाए, कुछ नहीं तो आंखों ऊपर हथेलियों का छज्‍जा ही सही। जरा सी छांह मिल जाए बस।  ..... देख दुपहरी जेठ की छाहौं चाहति छांह।
ज्‍येष्‍ठ में इसी छांह की तो ले दे है। सूर्य के रौद्र को देख कर छांह को अगोरती प्रकृति अहिंसक तपस्‍वी बन जाती है। पेड़ की फुनगी पर बैठा बाज पानी तलाश रहा है। ठीक  नीचे बैठी नन्‍हीं सी चिडि़या भी चोचें खोले बेचैन है। पत्‍ते की ओट में एक कीड़ा दुबका जा रहा है। प्रकृति की भोजन श्रंखला फिलहाल स्‍थगित है। सामने की टीन में बंदर दुबका है। अलसाया हलवाई पहचानता है कि कल इसी ने पांच किलो खोए का सत्‍यानाश किया था। मगर आग दरिया पार कर बंदर को भगाने कौन जाए। कार से चुटहिल कुत्‍ता कार के ही नीचे घुस गया है। कार चलेगी तो भाग निकलेंगे तब तक छांह तो ले ली जाए। ..... डिस्‍कवरी चैनल पर हाल में ही देखी एक फिल्‍म याद आ रही है। नामीबिया के रेगिस्‍तान में सूरज आग उगल रहा है। सूखे पेड़ की मरियल छाया में एक तरफ भूखा शेर निढाल पड़ा हांफ रहा है तो पेड़ के दूसरी तरफ हिरनों का परिवार जरा सी छांह में दुबका है। भैंसों का झुंड शेरों को पानी का रास्‍ता बताता है। ...
डिस्‍कवरी चैनल को आज पता चला कि निदाघ ग्रीष्‍म में प्रकृति अपनी स्‍वाभाविक हिंसा को बिसरा देती है। बिहारी ने वर्षों पहले देख लिया था। 
... कहलाने एकत बसत अहि मयूर मृग बाघ,
जगत तपोवन सो कियो दीरघ दाघ निदाघ।
सूरज धूप की चादर समेट कर निकल जाता है लेकिन ज्‍येष्‍ठ की रात भी बेहिसाब तपती है। .... बिजली हमेशा की तरह गुल है। आसपास के सारे अहि मयूर मृग बाघ्‍ा एक साथ निकल आऐ हैं। हमेशा नाक भौं सिकोड़ने वाले पांडे जी पार्क के कोने में चिपके बतिया रहे हैं। गुस्‍सा नाक पर रखने वाली श्रीमती सिंह पसीना पोंछते हुए पड़ोसी के ठंडे पानी की तारीफ कर रही हैं। कोई छत पर टंगा है तो कोई पार्क में, तो कोई सड़क किनारे फुटपाथ पर बैठा है। सब प्रकृति की गोद में है।

मैं अचनाक बिलबिलाकर करवट लेता हूं बिस्‍तर में एक तरफ मेरा पसीना प्रिंट बन गया है।
बहुत हुआ निर्गुण और बहुत हुआ तपोवन !!!
अब बस भी करो !!
इतना ताप असह्य है !!
.... बड़बड़ाते हुए मेरी नींद खुल जाती है।
होठों से बेसाख्‍ता राहत इंदौरी का शेर फूट पड़ता है
धूप बहुत है मौसम जल-थल भेजो न /  बाबा मेरे नाम का बादल भेजो न।....
अचानक दरवाजा खड़क गया है। …..आसमान में कुछ बज रहा है।
एक हल्‍का सा ठंडा झोंका सहला गया है।
मैं जाग कर बाहर दौड़ पड़ता हूं।…. उजाला होने को है। पूरब के आकाश में काली चित्रकारी चल रही है।
हुर्रे ..!!!!!  आषाढ़ की डाक आ गई !!!!
कहीं एक लोक निर्गुण बज उठा है।
जोगी की मड़ैया बाजै अनहद बाजन
तहं नाचै सुरति सोहागिन हो राम
गगन में बदरा गरजै, रिमझिम रिमझिम मेहा बरसै
बिच बिच बिजुरी चमकै हो राम।
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Thursday 9 June 2011

वैशाखनंदन !!

, आओ वैशाखनंदन. !! यह खरखराता स्वर संस्कृत वाले गुरु जी का था। जीभ और दांतों के बीच कोटर में पान की पीक को संभालते हुए बोलने का यह अद्भुत एडवेंचर और कोई कर ही नहीं सकता था। …….. पसीना पोंछ्ता गोल मटोल गदबदा गोलू कमरे में प्रवेश कर रहा था। गुरु जी का तीर निशाने लगा था। स्टाफ रुम में कई होठों से फिस्‍स वाली हंसी निकल गई मगर गोलू लजा गया। मानो उसे प्रशंसा का शीतल पेय मिल गया हो। वह भोला क्या जाने कि संस्कृतावतार गुरु जी के व्यंग्य बोल उसे देखकर ही फूटे थे। गर्मी में भी खुशहाल गोलू का दरअसल पाशवीकरण हो गया था। वह कुछ देर के लिए उपहास के चिरंतन प्रतीक एक चौपाये का पर्याय बन गया था। गुरु जी ने उसे गधा बना दिया था।
  हंस तो मैं भी पड़ा था….. गुरु जी की व्यंग्योक्ति पर नहीं । बल्कि इस शब्द की विचित्रता पर। वैशाख में आनंद ? गुर्राते सूर्य के साथ आनंद, दहकते दिन और तपती रातों के बीच आनंद, दरकती भूमि और सूखते जलाशयों के बीच आनंद, शीतलता की शॉर्टेज के बीच आनंद, पूरी तरह लस्त पस्त और ध्वस्त करते मौसम के बीच आनंद..??…… शत प्रतिशत ऑक्सीमोरोन (oxymoron) है यह शब्द वैशाखनंदन ! यानी असंगत और विरोधाभासी। लेकिन इस घोर आनंद विरोधी मौसम की भरी दोपहर में मैंने भी कई बार रासभ (गधे का संस्कृत पर्याय) की रस भरी ढेंकार तो सुनी है और गोपाल प्रसाद व्यास की कविता भी स्मरण में आई है…….. मेरे प्यारे सुकुमार गधे, जग पड़ा दोपहरी में सुनकर मैं तेरी मधुर पुकार गधे। कितनी मीठी कितनी मादक स्वर ताल तान पर सधी हुई आती है ध्वनि जब गाते मुख ऊंचा कर आहें भरकर। तो हिल जाते छायावादी कवि की वीणा के तार गधे।
टर्र करने वाले (कनौजी में व्यंग्यात्मक टिप्पणी) करने वाले कहते हैं कि वैशाख में जब सूर्य के कोप के कारण घास की कमी से अन्य जीव झुरा (दुर्बल) जाते हैं तब गर्दभ राज मोटाते हैं। गर्दभ सूखती घास देखकर खुश हैं, मानते हैं उन्होंने सारी घास चर डाली है। इसी उल्लास में वह वैशाख की दोपहरी में अक्सर गा उठते हैं। उपहास के धुरंधरों की इस हास्यकथा पर गर्दभ की आधिकारिक टिप्पणी कभी नहीं मिली लेकिन बात सिर्फ हंसने वाली नहीं लगती। यह भी तो एक व्याख्या हो सकती है कि इस घोर श्रमजीवी, उपेक्षित, मूढ़ता के चिरंतन प्रतीक, सीधे सादे पशु को वर्ष की सबसे कठिन ऋतु में भी आनंदित होना आता है। है न ???
   वैशाख में आनंद कठिन है लेकिन दुर्लभ नहीं। जगमोहन काका उमगते हुए घूम रहे हैं। न फटी धोती की चिंता न चीकट बनियान की। सन बर्न से चमकदार हुई त्वचा पर पसीने और भूसे की विचित्र चित्रकारी उन्हें एलियन बना रही है। ……पानी लगाते समय ट्यूबवेल वाले के नखरे, महंगी खाद, लगान का नोटिस, जमीन के अपने छोटे से टुकड़े के लिए आए लालच भरे प्रस्ताव, बिजली की कटौती, ट्रैक्टर वाले की चिरौरी, बैंक का पुराना कर्ज और पिछले साल में मंडी में मिला कड़वा अनुभव !
इस समय सब कुछ भूल गए हैं जगमोहन। पेट भर पानी भी नहीं पीते और दौड़ पड़ते हैं थ्रेशर की तरफ। सोने का एक एक दाना बटोर लेना चाहते हैं। बड़ी कठिनता से उगा है यह सोना !! ….. बाबा नागार्जुन कहते थेफसल क्या है हाथों के स्पर्श की महिमा है रुपांतर है सूरज की किरणों का। जगमोहन को मालूम है कि अपने सोने को मंडी तक ले जाने के लिए उन्हें ट्रैक्टर वाले मिश्रा जी के पैर दबाने हैं। चौराहे का पुलिस वाला घुड़केगा। आढ़ती चिरौरी करायेगा। दलाल निचोड़ेगा। व्यापारी घटतौली करेगा। …….. लेकिन यह बाद में देखेंगे। इस समय तो आनंद का मौका है श्रम को फलते देखने महसूसने और हुलसने का मौका है। उनके खलिहान की गोद जो भर रही है। जगमोहन काका सचमुच वैशाखनंदन हैं। उनका आनंद प्रणम्य है।
  अचानक मुझे कई वैशाखनंदन दिखने लगते हैं। चौराहे के मोड़ पर बन रहे नए होटल के श्रमिकों की बस्ती में उत्सव चल रहा है। कुछ दूर बन रहे फ्लाई ओवर में काम करने वाले मजदूर भी आए हैं। दिन भर धूप से दो दो हाथ कर तपे हुए शरीर कोई उत्सव मना रहे हैं। उत्सव बस उत्सव है वजह का क्या करना? सबको यह मालूम है कि इन मजदूरों की अगली पीढ़ी भी इस होटल का लौह द्वार पार नहीं कर पाएगी और वह उड्डाण पुल (मुंबई में फ्लाई ओवर का दिलचस्प मराठी अनुवाद) बनाने वाले कभी उस पर गाड़ी नहीं दौड़ायेंगे लेकिन क्या फर्क पड़ता है। आज का आनंद तो उनका है।
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  बिहू आनंदिया, बिहुर मउ मीठा हात, बिहुर बा लागी बिहुआ कोकेर, ………….. ढोल बांसुरी और तुरही की ध्वनि के साथ स्मृतियों में कोई कहीं बिहू गा उठा है। अरे यहां तो हर ओर रंगे बिरंग खिलखिलाते वैशाखनंदन हैं। रंगाली बिहू चल रहा है। असम के तीन बिहू पर्वों में सबसे बड़ा बिहू। इसे बोहाग बिहू भी बुलाते हैं। फसल कटी तो श्रम का फल मिला। कम या ज्यादा इसका हिसाब करने को तो पूरा साल पड़ा है। तत्काल तो बस बिहू आनंदिया है। निर्धनता और उपेक्षा के दर्द से किनारा करने का मौका। साढ़े तीन हजार साल पुरानी यह वैशाख आनंद कथा कभी खत्म नहीं होती। आरके ने परे आमार बिहू रे कथा। …. खत्म भी क्यों हो….?
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लाओत्से कहता है कि यदि प्रसन्न होना है तो हो जाओ बस… (If you want to be happy, be!) ठीक ही तो है अगर आनंदित होना है तो क्या. वैशाख क्या जेठ? और फिर बसंत की मादक पवन, आमों के बौर पीली सरसों व फाग के रंग बीच आनंदित हुए तो क्या तीर मार लिया?? या सावन की पुरवाई और भादों के झकोरों के बीच झूम लिये तो कौन सा मेडल जीत लिया?? यह तो प्रकृति के आनंद पर्व हैं ही। हकड़ते सूर्य, तपती भूमि, चिरते गले और चटखते तालू के बीच अगर आनंदित हुए तब बनती है बात।
वैशाख में आनंदित होना हिम्मत की बात है यह अभाव के बीच का उल्लास है। और जब कोई आनंदित होता है तो When you are really happy, the birds chirp and the sun shines even on cold dark winter nights – and flower will bloom on barren land..(Grey Livingston) वैसे यह बात पश्चिम की है उनके लिए शरद सबसे विषम है जबकि हमारे लिए ग्रीष्म सबसे कठिन, सो इस उक्ति का हिंदुस्तानी मतलब यह कि तपता वैशाख भी ठंडा और मीठा है अगर भीतर आनंद है….. तो !!!
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बहुत हो गई गधा पचीसी !!!……. गोलू शत प्रतिशत वैशाखनंदन है!!! उसे अभाव में हंसना और उल्लास बांटना आता है। वह हर व्यक्ति जो घोर विपरीत के बीच आनंदित हो लेता है वैशाखनंदन है। गुरु जी!! अगर वक्त मिले तो शब्द कोष में वैशाखनंदन का अर्थ बदलवा दीजियेगा। यह सकारात्मक शब्द है यह श्रमजीवी मनुष्य और एक सीधे सादे, मेहनती व निरीह पशु दोनों के साथ भाषाई अन्याय करता है। मैं भी गरमी को बिसूरना छोड़ वैशाखनंदन बनने का प्रयास करने लगता हूं। आबिदा परवीन मस्त गा रही हैं।
 मैं नाराये मस्ताना, मैं शोख ये रिंदाना।
मैं तश्ना कहां जाऊं, मैं तश्ना…. मैं तश्ना कहां जाऊं ???
पीकर भी कहां जाना!!!!
मैं नाराये मस्ताना, मैं शोख ये रिंदाना।
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