Monday 30 May 2011

चैत का चित्त.

रिक्‍तता का रंग क्‍या है ? ……….अवसाद का स्‍वाद कैसा है ?........अनमनापन भी बोलता है? …ऊब की छुअन कैसी है? …..मौन में महक भी होती है?
...... कैसे कैसे अजीब से सवाल मन में उठ रहे हैं। .... ऐं वेई !!!!.....एक बेगानापन ! अबूझ उलझन!! कोई अनजानी पीर !!, आलस्‍य!! खालीपन, अन्‍यमनस्‍कता !!...... यह कहानी क्‍या है। शाम से बुझा बुझा सा रहता है दिल हुआ है चराग मुफलिस का। ..... मीर के सहारे मैं इस ऊब का ओर छोर तलाशने लगता हूं कि दूर कहीं से एक स्‍वर कान में पड़ता है... …. चढ़ल चैत चित लागे न रे रामा  ~~~~ !!.....एक सधे सुर ने मेरी बेसबब बेखुदी को कोंच दिया था। अरे यह तो चैत है !!! मैंने अपने एक धौल मारी, चैत में कब किसका चित्‍त लगा है ?? चैत तो उखड़े मूड का महोत्‍सव है।
..... न रे रामा .....
चैती की टेक चित्‍त में फंस सी गई। हो रामा !!…..  न रे रामा!! ....
चैती की यही टेक तो चीर देती है। राम और चैत। चैत में सिर्फ राम ही जन्‍म सकते थे। बड़े जतन से जन्‍म, बचपन जंगल में, जवानी जंगल में और प्रयाण जल में। मर्यादाओं की महागाथाओं से सजा विशुद्ध चैती चरित्र। कृष्‍ण होते तो चैत में पैदा होने से बगावत कर देते। चैत का चित्‍त तो चाह कर भी चंचल और खिलंदड़ नहीं हो सकता। इसे तो राम जैसी गंभीरता और शांति ही सोहती है। या फिर चैत सोहता है महावीर जैसे जटिल जिनेंद्र को। चैत निर्वेद की राह पर राम और महावीर (दोनों का बर्थ डे चैत में) का सहचर है।
क्‍या चैत का कोई रंग नहीं है जो मन लगा सके? क्षण-क्षण में रंग बदलने वाली प्रकृति ऐसा कैसे कर सकती है?.... मैं उलझ जाता हूं ???.....चैत में रंग तो हैं मगर रंगीनियत नहीं। चैत के चढ़ने तक बसंत का पीलापन बोर करने लगता है। आखिर बसंत की नई नई पियराई और चैत का पीलापन एक जैसे हो भी कैसे सकते हैं। पूस की कटकट के बाद बसंत की पीली धूप बंधन खोलती है। आम के बौर व सरसों के टूसों में प्रकृति हंसती बोलती है। चैत तक यही पीलापन तपने और चुभने लगता है। यूं तो टेसू का लाल भी चैत में चटकता है। मगर फागुन वाली मस्‍ती गायब है। चैत में टेसू तपन से जूझता हुआ गुस्‍से में लाल नजर आता है। चैत दरअसल बसंत और फागुन के प्रतिनिधि रंगों की उदास व्‍याख्‍या करता है। तभी तो जायसी की नागमती चैत में रक्‍त के आंसुओं का टेसू उगा डालती है। ....
पंचम बिरह पंच सर मारे । रकत रोइ सगरौं बन ढारै ॥
बूडि उठे सब तरिवर-पाता । भीजि मजीठ, टेसु बन राता ॥
बौरे आम फरैं अब लागै । अबहुँ आउ घर, कंत सभागे !
मोकहँ फूल भए सब काँटे । दिस्टि परत जस लागहिं चाँटे ॥
मेरा चित्‍त चैती रंगों के गरम चांटे खाकर खीझने लगा है। शायद गंध की शरण में जाने पर कुछ राहत मिले। चैत की गंध ??....कुछ याद नहीं आता….!! अचानक स्‍मृतियों में कुछ गूंजने लगता है। ... मातल महुआ मदन रस टपके . चइत हो रामा.... !!! टप ….टप टप.!!... वाउ!!!
मिल गई चैत की गंध। दूर कहीं महुआ टपक रहा है। एक विलक्षण सी मादक गंध निस्‍पंद रात्रि में दूर तक बिखर जाती है। महुआ चैत की रात्रि में फरता-झरता है, पूरी तरह निस्‍संग, निचाट अकेला, पेड़ पर सिर्फ फूल, एक भी पत्‍ता नहीं।  महुआ टूट कर गमकता है लेकिन बावला नहीं करता। इसकी गंध एक गहरे अबूझ रहस्‍य में ढकेल देती है। चैत इसी मादकता के कारण तो रहस्‍यमय है।
चैत का चित्‍त संगीत, रंग और गंध में अपनी बेखुदी की वजहें तलाश कर अब निढाल होने लगा है। एक दर्द सा घिर आता है। कोई गा उठा है।  
रहि रहि पीर जगावे हो रामा चइत बइरिया,
भोर भिनुसहरा के आधी आधी रतिया,
सुधि की सं‍करिया बजावे हो रामा।
चइत बइरिया।
चैत की बयार सुधियों की सांकल खड़का कर पीर को जगा रही है। मगर काहे की पीर?? .....किस बात की रिक्‍तता.??.. दर्द की क्‍या वजह ??.... कुछ समझ में नहीं आता। चैत का यह स्‍वभाव तो बरसों बरस से कोई समझ नहीं पाया तो मैं कूढमगज क्‍या समझूंगा? लेकिन फिर लगता है कि कुछ न समझ में आने का भी तो एक अपना स्‍वाद है। अनजानी तलाश का का अपना रोमांच है। सन्‍नाटे का भी एक संगीत है। रहस्‍य में भी मधुरता होती है। नाचते कूदते फागुन और झंकोरते भिगाते सावन में यह सब कहां मिलेगा ? यह अनुभव तो केवल चैत की शांति दे सकती है। अर्थात चैत में मन उखड़ता नहीं बल्कि अपने भीतर उतर कर रहस्‍य का मधु तलाशता है। .....चैत को तो मधुमास भी कहते हैं न !!! ....
चैत का मैसेज मिल गया है। मेरा मन चैती बयार के साथ रहस्‍य का मधु तलाशने निकल पड़ता है। अचानक हाथ रेडियो को छू गया है। ..... कुछ बजने लगा है।
दिल तो बच्‍चा है जी, थोड़ा कच्‍चा है जी
किसको पता था पहलू में रखा दिल ऐसा बाजी भी होगा
हम तो हमेशा समझते थे कोई हम जैसा हां जी ही होगा।  
हाय जोर करे, कितना शोर करे/ बेवजह बातों में ऐ वेईं गौर करे।
दिल तो बच्‍चा है जी, थोड़ा कच्‍चा है जी।
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