Tuesday 28 June 2011

छाहौं चाहति छांह !

रुद्र के दर्शन किये.??... पानी में तर फेंटा बांधे कुएं की छाया में बैठे बूढ़े साधू ने सवाल दागा।
 क्‍या बाबा.!! .. हलक में कांटे उगे हैं और तुम्‍हें ठिठोली सूझ रही है। झुंझलाते हुए मैंने पानी के लोटे में मुंह अड़ा दिया। ...


बाबा कनखियों से मुस्‍कराये। ..... देख ले देख ले .... फिर न कहना नहीं बताया!!
क्‍या रुद्र ...कैसा दर्शन.. किसकी बात कर रहे हो ?? पानी ढकोल कर मैं कुछ संभल गया था।
बाबा चटक कर उठे और मुझे खींच कर खुली सड़क पर ले आए।
अपने सर के ऊपर देख ! ... रुद्र कैसे ठठा रहा है।
जेठ का सूरज साक्षात रुद्र है। ... कितना दुर्धर्ष है इसका अट्टहास।
सबकी सिटृटी पिट्टी गुम है। क्‍या आदमी क्‍या, परिंदा क्‍या, क्‍या जीव क्‍या कीट।
अपनी आदतें भूल, सब मैदान छोड़ भागे हैं।
सन्‍नाटी सड़क पर बाबा का ठहाका गूंज रहा था।
. मैं तो चला.... तू भी दर्शन कर और छाया में छिप जा, जेठ के सूरज से पंगा नहीं लेने का... समझा।
 बूढ़े साधु ठीक कहते हैं। ज्‍येष्‍ठ के सूरज जैसा ही होता होगा वैदिक रुद्र। ज्‍येष्‍ठ तो वैसे भी वृषभ (ज्‍योतिषीय राशि) पर सवार हो कर आता है। वृषभ अर्थात रुद्र का वाहन तो वैसा ही रौद्र रुप। .... सूर्य यूं तो दिव्‍य भी है, मनभावन भी। बिला नागा जाने कब से प्रकृति को चेतना की डाक बांट रहा है लेकिन ज्‍येष्‍ठ में इसका मिजाज कुछ बदल जाता है। पौ फटते ही सूर्य चढ़ आया है हंकड़ता हुआ। तमतमाये सूरज के साथ दिन सुबह से आग उगलने लगता है। पूरी प्रकृति को अगियारी में बिठाये नाच रहा है सूरज। प्रत्‍यक्ष देवता अपने हजारों हाथों से अग्निबाण्‍ बरसा रहा है। ज्‍येष्‍ठ सूर्य के पौरुष का लाइव टेलीकास्‍ट है। ज्‍येष्‍ठ की पूरी चित्रकारी सूर्य करता है। प्रकृति का सबसे तेजस्‍वी देवता जब कुछ तय करता है तो क्‍या मजाल कि कोई कुछ बोल सके। सूर्य का आदेश है कि सबको एक धूसर पीले रंग में डूबना होगा। बसंत का पीलापन नहीं आग का पीलापन। जिसको पकना हो आम की तरह अकेले पके यानी रस चाहिए तो धूप पिये। ज्‍येष्‍ठ की भोर से ही चारो तरफ निर्गुण बिखर जाता है। प्रकृति और इसके सभी सदस्‍य अपनी हनक, सनक और तुनक छोड़ कर दुबक जाते हैं। एक अनमनी शांति, अकेलापन। प्रकृति का सबसे बड़ा तपस्‍वी अपनी जटा खोले नाच रहा है। वाह ज्‍येष्‍ठ वाह .... मेरे आस पास भी एक तपोवन रच गया है।
जेठ जरै जग चलै लुवारा । उठहि बवंडर परहिं अँगारा ॥
चारिहु पवन झकोरे आगी । लंका दाहि पलंका लागी॥ 
जायसी की नागमती पछुआ को बिसूर रही है। दिन चढते ही आग की नदी में पछुआ की लहरे उठने लगी हैं। पछुआ ग्रीष्‍म की सहचरी है। शरद बीतने की सूचना देने वाली बसंती मादक पछुआ ज्‍येष्‍ठ में दाहक हो जाती है। हाहाकारी लू। भरी दोपहरी तरह तरह की आवाजें। ग्राम्‍य जीवन यूं ही ज्‍येष्‍ठ की दोपहरी को डरावने विश्‍वासों नहीं जोड़ लेता। ज्‍येष्‍ठ की हवा हॉरर फिल्‍म का सा संगीत रचती है। दूर दूर तक निर्जनता पसरी है चिड़ी का पूत भी नहीं दिखता। पछुआ धूल के बगूलों में घूम घूम कर सूरज को रिझा रही है। ज्‍येष्‍ठ इस पश्चिमा वायु का भी चरम है। अब तो यह बसंत में ही लौटेगी। कट चुके सुनसान खेतों में सूरज अपनी इस सहचरी के साथ क्रीड़ा करता है।
मगर इस क्री़ड़ा को देखने का बूता किसमे है। इस समय तो सबको बस छांह का एक टुकड़ा चाहिए। पत्‍तों की छांह, न मिले तो दीवाल की छांह, सर पर छोटी सी किताब रखकर ही कुछ बचत हो जाए, कुछ नहीं तो आंखों ऊपर हथेलियों का छज्‍जा ही सही। जरा सी छांह मिल जाए बस।  ..... देख दुपहरी जेठ की छाहौं चाहति छांह।
ज्‍येष्‍ठ में इसी छांह की तो ले दे है। सूर्य के रौद्र को देख कर छांह को अगोरती प्रकृति अहिंसक तपस्‍वी बन जाती है। पेड़ की फुनगी पर बैठा बाज पानी तलाश रहा है। ठीक  नीचे बैठी नन्‍हीं सी चिडि़या भी चोचें खोले बेचैन है। पत्‍ते की ओट में एक कीड़ा दुबका जा रहा है। प्रकृति की भोजन श्रंखला फिलहाल स्‍थगित है। सामने की टीन में बंदर दुबका है। अलसाया हलवाई पहचानता है कि कल इसी ने पांच किलो खोए का सत्‍यानाश किया था। मगर आग दरिया पार कर बंदर को भगाने कौन जाए। कार से चुटहिल कुत्‍ता कार के ही नीचे घुस गया है। कार चलेगी तो भाग निकलेंगे तब तक छांह तो ले ली जाए। ..... डिस्‍कवरी चैनल पर हाल में ही देखी एक फिल्‍म याद आ रही है। नामीबिया के रेगिस्‍तान में सूरज आग उगल रहा है। सूखे पेड़ की मरियल छाया में एक तरफ भूखा शेर निढाल पड़ा हांफ रहा है तो पेड़ के दूसरी तरफ हिरनों का परिवार जरा सी छांह में दुबका है। भैंसों का झुंड शेरों को पानी का रास्‍ता बताता है। ...
डिस्‍कवरी चैनल को आज पता चला कि निदाघ ग्रीष्‍म में प्रकृति अपनी स्‍वाभाविक हिंसा को बिसरा देती है। बिहारी ने वर्षों पहले देख लिया था। 
... कहलाने एकत बसत अहि मयूर मृग बाघ,
जगत तपोवन सो कियो दीरघ दाघ निदाघ।
सूरज धूप की चादर समेट कर निकल जाता है लेकिन ज्‍येष्‍ठ की रात भी बेहिसाब तपती है। .... बिजली हमेशा की तरह गुल है। आसपास के सारे अहि मयूर मृग बाघ्‍ा एक साथ निकल आऐ हैं। हमेशा नाक भौं सिकोड़ने वाले पांडे जी पार्क के कोने में चिपके बतिया रहे हैं। गुस्‍सा नाक पर रखने वाली श्रीमती सिंह पसीना पोंछते हुए पड़ोसी के ठंडे पानी की तारीफ कर रही हैं। कोई छत पर टंगा है तो कोई पार्क में, तो कोई सड़क किनारे फुटपाथ पर बैठा है। सब प्रकृति की गोद में है।

मैं अचनाक बिलबिलाकर करवट लेता हूं बिस्‍तर में एक तरफ मेरा पसीना प्रिंट बन गया है।
बहुत हुआ निर्गुण और बहुत हुआ तपोवन !!!
अब बस भी करो !!
इतना ताप असह्य है !!
.... बड़बड़ाते हुए मेरी नींद खुल जाती है।
होठों से बेसाख्‍ता राहत इंदौरी का शेर फूट पड़ता है
धूप बहुत है मौसम जल-थल भेजो न /  बाबा मेरे नाम का बादल भेजो न।....
अचानक दरवाजा खड़क गया है। …..आसमान में कुछ बज रहा है।
एक हल्‍का सा ठंडा झोंका सहला गया है।
मैं जाग कर बाहर दौड़ पड़ता हूं।…. उजाला होने को है। पूरब के आकाश में काली चित्रकारी चल रही है।
हुर्रे ..!!!!!  आषाढ़ की डाक आ गई !!!!
कहीं एक लोक निर्गुण बज उठा है।
जोगी की मड़ैया बाजै अनहद बाजन
तहं नाचै सुरति सोहागिन हो राम
गगन में बदरा गरजै, रिमझिम रिमझिम मेहा बरसै
बिच बिच बिजुरी चमकै हो राम।
 -------------

Thursday 9 June 2011

वैशाखनंदन !!

, आओ वैशाखनंदन. !! यह खरखराता स्वर संस्कृत वाले गुरु जी का था। जीभ और दांतों के बीच कोटर में पान की पीक को संभालते हुए बोलने का यह अद्भुत एडवेंचर और कोई कर ही नहीं सकता था। …….. पसीना पोंछ्ता गोल मटोल गदबदा गोलू कमरे में प्रवेश कर रहा था। गुरु जी का तीर निशाने लगा था। स्टाफ रुम में कई होठों से फिस्‍स वाली हंसी निकल गई मगर गोलू लजा गया। मानो उसे प्रशंसा का शीतल पेय मिल गया हो। वह भोला क्या जाने कि संस्कृतावतार गुरु जी के व्यंग्य बोल उसे देखकर ही फूटे थे। गर्मी में भी खुशहाल गोलू का दरअसल पाशवीकरण हो गया था। वह कुछ देर के लिए उपहास के चिरंतन प्रतीक एक चौपाये का पर्याय बन गया था। गुरु जी ने उसे गधा बना दिया था।
  हंस तो मैं भी पड़ा था….. गुरु जी की व्यंग्योक्ति पर नहीं । बल्कि इस शब्द की विचित्रता पर। वैशाख में आनंद ? गुर्राते सूर्य के साथ आनंद, दहकते दिन और तपती रातों के बीच आनंद, दरकती भूमि और सूखते जलाशयों के बीच आनंद, शीतलता की शॉर्टेज के बीच आनंद, पूरी तरह लस्त पस्त और ध्वस्त करते मौसम के बीच आनंद..??…… शत प्रतिशत ऑक्सीमोरोन (oxymoron) है यह शब्द वैशाखनंदन ! यानी असंगत और विरोधाभासी। लेकिन इस घोर आनंद विरोधी मौसम की भरी दोपहर में मैंने भी कई बार रासभ (गधे का संस्कृत पर्याय) की रस भरी ढेंकार तो सुनी है और गोपाल प्रसाद व्यास की कविता भी स्मरण में आई है…….. मेरे प्यारे सुकुमार गधे, जग पड़ा दोपहरी में सुनकर मैं तेरी मधुर पुकार गधे। कितनी मीठी कितनी मादक स्वर ताल तान पर सधी हुई आती है ध्वनि जब गाते मुख ऊंचा कर आहें भरकर। तो हिल जाते छायावादी कवि की वीणा के तार गधे।
टर्र करने वाले (कनौजी में व्यंग्यात्मक टिप्पणी) करने वाले कहते हैं कि वैशाख में जब सूर्य के कोप के कारण घास की कमी से अन्य जीव झुरा (दुर्बल) जाते हैं तब गर्दभ राज मोटाते हैं। गर्दभ सूखती घास देखकर खुश हैं, मानते हैं उन्होंने सारी घास चर डाली है। इसी उल्लास में वह वैशाख की दोपहरी में अक्सर गा उठते हैं। उपहास के धुरंधरों की इस हास्यकथा पर गर्दभ की आधिकारिक टिप्पणी कभी नहीं मिली लेकिन बात सिर्फ हंसने वाली नहीं लगती। यह भी तो एक व्याख्या हो सकती है कि इस घोर श्रमजीवी, उपेक्षित, मूढ़ता के चिरंतन प्रतीक, सीधे सादे पशु को वर्ष की सबसे कठिन ऋतु में भी आनंदित होना आता है। है न ???
   वैशाख में आनंद कठिन है लेकिन दुर्लभ नहीं। जगमोहन काका उमगते हुए घूम रहे हैं। न फटी धोती की चिंता न चीकट बनियान की। सन बर्न से चमकदार हुई त्वचा पर पसीने और भूसे की विचित्र चित्रकारी उन्हें एलियन बना रही है। ……पानी लगाते समय ट्यूबवेल वाले के नखरे, महंगी खाद, लगान का नोटिस, जमीन के अपने छोटे से टुकड़े के लिए आए लालच भरे प्रस्ताव, बिजली की कटौती, ट्रैक्टर वाले की चिरौरी, बैंक का पुराना कर्ज और पिछले साल में मंडी में मिला कड़वा अनुभव !
इस समय सब कुछ भूल गए हैं जगमोहन। पेट भर पानी भी नहीं पीते और दौड़ पड़ते हैं थ्रेशर की तरफ। सोने का एक एक दाना बटोर लेना चाहते हैं। बड़ी कठिनता से उगा है यह सोना !! ….. बाबा नागार्जुन कहते थेफसल क्या है हाथों के स्पर्श की महिमा है रुपांतर है सूरज की किरणों का। जगमोहन को मालूम है कि अपने सोने को मंडी तक ले जाने के लिए उन्हें ट्रैक्टर वाले मिश्रा जी के पैर दबाने हैं। चौराहे का पुलिस वाला घुड़केगा। आढ़ती चिरौरी करायेगा। दलाल निचोड़ेगा। व्यापारी घटतौली करेगा। …….. लेकिन यह बाद में देखेंगे। इस समय तो आनंद का मौका है श्रम को फलते देखने महसूसने और हुलसने का मौका है। उनके खलिहान की गोद जो भर रही है। जगमोहन काका सचमुच वैशाखनंदन हैं। उनका आनंद प्रणम्य है।
  अचानक मुझे कई वैशाखनंदन दिखने लगते हैं। चौराहे के मोड़ पर बन रहे नए होटल के श्रमिकों की बस्ती में उत्सव चल रहा है। कुछ दूर बन रहे फ्लाई ओवर में काम करने वाले मजदूर भी आए हैं। दिन भर धूप से दो दो हाथ कर तपे हुए शरीर कोई उत्सव मना रहे हैं। उत्सव बस उत्सव है वजह का क्या करना? सबको यह मालूम है कि इन मजदूरों की अगली पीढ़ी भी इस होटल का लौह द्वार पार नहीं कर पाएगी और वह उड्डाण पुल (मुंबई में फ्लाई ओवर का दिलचस्प मराठी अनुवाद) बनाने वाले कभी उस पर गाड़ी नहीं दौड़ायेंगे लेकिन क्या फर्क पड़ता है। आज का आनंद तो उनका है।
.............
  बिहू आनंदिया, बिहुर मउ मीठा हात, बिहुर बा लागी बिहुआ कोकेर, ………….. ढोल बांसुरी और तुरही की ध्वनि के साथ स्मृतियों में कोई कहीं बिहू गा उठा है। अरे यहां तो हर ओर रंगे बिरंग खिलखिलाते वैशाखनंदन हैं। रंगाली बिहू चल रहा है। असम के तीन बिहू पर्वों में सबसे बड़ा बिहू। इसे बोहाग बिहू भी बुलाते हैं। फसल कटी तो श्रम का फल मिला। कम या ज्यादा इसका हिसाब करने को तो पूरा साल पड़ा है। तत्काल तो बस बिहू आनंदिया है। निर्धनता और उपेक्षा के दर्द से किनारा करने का मौका। साढ़े तीन हजार साल पुरानी यह वैशाख आनंद कथा कभी खत्म नहीं होती। आरके ने परे आमार बिहू रे कथा। …. खत्म भी क्यों हो….?
.....
लाओत्से कहता है कि यदि प्रसन्न होना है तो हो जाओ बस… (If you want to be happy, be!) ठीक ही तो है अगर आनंदित होना है तो क्या. वैशाख क्या जेठ? और फिर बसंत की मादक पवन, आमों के बौर पीली सरसों व फाग के रंग बीच आनंदित हुए तो क्या तीर मार लिया?? या सावन की पुरवाई और भादों के झकोरों के बीच झूम लिये तो कौन सा मेडल जीत लिया?? यह तो प्रकृति के आनंद पर्व हैं ही। हकड़ते सूर्य, तपती भूमि, चिरते गले और चटखते तालू के बीच अगर आनंदित हुए तब बनती है बात।
वैशाख में आनंदित होना हिम्मत की बात है यह अभाव के बीच का उल्लास है। और जब कोई आनंदित होता है तो When you are really happy, the birds chirp and the sun shines even on cold dark winter nights – and flower will bloom on barren land..(Grey Livingston) वैसे यह बात पश्चिम की है उनके लिए शरद सबसे विषम है जबकि हमारे लिए ग्रीष्म सबसे कठिन, सो इस उक्ति का हिंदुस्तानी मतलब यह कि तपता वैशाख भी ठंडा और मीठा है अगर भीतर आनंद है….. तो !!!
.............  
बहुत हो गई गधा पचीसी !!!……. गोलू शत प्रतिशत वैशाखनंदन है!!! उसे अभाव में हंसना और उल्लास बांटना आता है। वह हर व्यक्ति जो घोर विपरीत के बीच आनंदित हो लेता है वैशाखनंदन है। गुरु जी!! अगर वक्त मिले तो शब्द कोष में वैशाखनंदन का अर्थ बदलवा दीजियेगा। यह सकारात्मक शब्द है यह श्रमजीवी मनुष्य और एक सीधे सादे, मेहनती व निरीह पशु दोनों के साथ भाषाई अन्याय करता है। मैं भी गरमी को बिसूरना छोड़ वैशाखनंदन बनने का प्रयास करने लगता हूं। आबिदा परवीन मस्त गा रही हैं।
 मैं नाराये मस्ताना, मैं शोख ये रिंदाना।
मैं तश्ना कहां जाऊं, मैं तश्ना…. मैं तश्ना कहां जाऊं ???
पीकर भी कहां जाना!!!!
मैं नाराये मस्ताना, मैं शोख ये रिंदाना।
 -------------------------